आश्रय भारत के बारे में


आश्रय भारत फरीदाबाद स्थित एक अलाभकारी, पंजीकृत गैरसरकारी संस्था है, आश्रय भारत फरीदाबाद में पिछले 10 सालों से राज्य की सबसे गंभीर समस्या कन्या भूर्ण हत्या पर काम कर रही है, संस्था लोगो के बीच जाकर कन्या भूर्ण हत्या पर जागरूकता का काम करती है, तथा समाज में बालिकाओ के घटती हुई संख्या पर लोगो का ध्यान केन्द्रित करती, इस जघन्य आपराध के प्रति लोगो को क़ानूनी जानकारी देती है, और समाज में बालिका के प्रति नकारात्मक सोच को बदलना तथा बालिकाओ को पढ़ा-लिखाकर उनको सक्षम बनाने की लिए लोगो को प्रेरित करती है.

Friday, December 11, 2009

ऐसा है हिंदुस्तान हमारा

भूख से बिलखते बच्चों को देखा
गोदामों में सड़ते आनाजों को देखा
बिन दवा के मरते लोंगों को देखा
मौत  के सौदों से जेब भरते देखा
ऐसा है हिंदुस्तान हमारा.

लड़कियों कि घटती संख्या देखा
दहेज़ लोभियों की  संख्या बड़ते देखा
महिलायों पर अत्याचार होते देखा
अत्याचारियों को खुले घूमते देखा
ऐसा है हिंदुस्तान हमारा.

मजदूरों को बेगार होते देखा
मालिकों की बदलती करों को देखा
गरीबों के घर उजड़ते देखा
आदिवासियों की जमीनों को छिनते देखा
ऐसा ही हिंदुस्तान हमारा.

पानी को तरसते लोगों को देखा
नदिया सागर बिकते देखा
गरीबों कि संख्या बढ़ते देखा
टाटा बिड़ला और अम्बानी फूलते देखा
ऐसा है हिंदुस्तान हमारा.

धर्म के नाम पर लोंगों को बंटते देखा
राजनीती कि रोटी शेकते ग्धारों को देखा
महगाई कि मर झेलते गरीबों को देखा
नेताओं को करोडपति बनते देखा
ऐसा है हिनुद्स्तान हमारा ... ऐसा है हिंदुस्तान हमारा .

Thursday, December 10, 2009

समाज में महिलाओं कि भूमिका

भारतीय धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जहाँ नारी कि पूजा होती है वहा देवता निवास करते है, परन्तु भारतीय समाज में नारी कि दुर्दसा होती है . महिला को या तो देवी (महिला सक्ती) के आसन पर बैठाया गया है या ताडन का अधिकारी माना गया है.  इस पित्रसत्ता समाज में हमेसा उसको दोयम का दर्जे का ही समझा गया है. कभी भी बराबरी का हक नहीं मिला. आँचल में दूध आँखों में पानी को महिलाओं ने अपनी नियति मन लिया है और नियति को सिर्फ स्वीकार किया जाता है, उसके लियें आवाज नहीं उठाई जाती. लडकियों का बचपन से ही बताया जाता है कि  ससुराल में डोली जाती है और अर्थी ही बहार निकलती है . इस तरह लड़कियों को हर जुल्म और अत्याचार सहने कि प्रेरणा बचपन से ही लडकियों को माता पिता और समाज के द्वारा दी जाती है .

लड़कियों को घर से और बहार तक अनेक प्रकार कि समस्याओ से झुझना पड़ता है . जैसे ही लड़की बोलने समझने लायक होती है तो यह पुरुष प्रधान समाज उसको रहन-सहन सिखाना शुरू कर देता है. पहले माता-पिता के द्वारा फिर भाई बहन, रिश्तेदार गली मोहले के लोग सिखाने लगते है . उसको उठने-बैठेने से लेकर खाने-पिने , हसने-बोलने सब पर कुछ न कुछ टिका -टिपण्णी कि जाती है . अपने भाई कि तुलना में वह अपने आप को तुच्छ पाती है. माँ-बाप के आदेश के वह अपनी सहेलियों के साथ बहार जाती है , जबकि उसका भाई बेरोक-टोक से अपने दोस्तों से साथ बहार चला जाता है . वह अपनी इच्छानुसार कपडे नहीं पहन सकती . जैसे ही लड़की १७-१८ साल ही होती उसके माँ -बाप को उसकी विवाह कि चिंता सताने लगती है वहा पर जाकर एक लड़की वही सबकुछ करना पड़ता जो उसकी माँ करती थी . ससुराल जाते ही उसे पुरे परिवार (पति, पति कि भाई बहन माँ बाप) का ख्याल रखन पड़ता तथा उनकी बातों को सुनना पड़ता है और तुरन्तु पूरा करना पड़ता है. शादी के बाद बच्चा (लड़का) न होने पर उसको ताना सुनाने पड़ते है. समाज तथा परिवार के लोग लड़का न होने का कारण उसी को मानते है , जबकि विज्ञानं के अनुसार लड़का या लड़की का जन्म पुरुष के क्रोमोजोंश पर निर्भर करता है . महिला कभी बेटी बहना तो कभी बहु पत्नी और माँ कि भूमिका निभाती है. महिला तो समाज के लिए इतनी महत्वपूर्ण है फिर वह दोयम दर्जे कि कैसी हो सकती है. उसके साथ ऐसा भेद भाव क्यूँ है? उसको बारबरी हक क्यों नहीं दिया जाता? वे समाज में अपने आप को क्यूँ असुरक्षित महसूस करती है? ये सभी प्रश्न हमारे बहु-बेटियों के सामने खड़े है . इन सभी सवालो का जबाब हमें हमें अपने-अपने परिवार और समाज में खोजना होगा.
       

Thursday, November 19, 2009

तो जिमाने के लिए कन्या कहा से आएगी

जरा सोचिये, अगर आप नवरात्री के मौके पर जिमाने के लिए चलती फिरती कन्या के जगह मूर्तियों का सहारा लेना पड़े। अगर बेटियों का पैदा होने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहे तो हो सकता आने वाले दिन ऐसे ही हो । नवरात्रे के मौके पर जिमाने के लिए कन्याओं का ऐसा विकल्प तलासना होगा। ऐसे संकेत पूरे देश से मिल रहे है, देश के लगभग सभी राज्यों में ऐसी ही हालत है। जी हां अपने पुण्य के लिए बेटियों को हम पूजना चाहेंगे और वे हमें नही मिलेगी।

यह किसी की दिमागी कल्पना नही है , प्राकृतिक नियमों के अनुसार स्त्री पुरूष लगभग बराबर की संख्या में होने चाहिए। कम से कम स्त्री तो कम नही होनी चाहिए , लेकिन सचाई क्या है । सन २००१ में स्त्री और पुरुषों की गिनती से पता चलता है की भारत में महिलाओं की संख्या पुरुषो की संख्या की अपेक्षा लगभग ६७ कम है।

जिन्हें जिमाया जाता है अब उम कन्या की संख्या का जायजा ले तो पूरे भारत वर्ष में ६ वर्ष से कम उम्र की लडकियों की संख्या लडको की अपेक्षा लगभग ७३ है । यानि गायब है। ये बेटियों तो विसुद रूप से पैदा नही होने दी गयी या पैदा होने के बाद जिंदगी की उमंगो से इन्हे महरूम कर दिया गया ।

अगर आने वाले दिनों में यही हाल रहा तो कहाँ मिलेगी नौ कन्या, नौ देवी पूजने के लिए और जिमाने की लिए। जमीन पर इसका असर दिख ही रहा है, नही मिल रही है कन्याएं , खासकर छोटे बड़े शहरों और कालोनियों में पहले अष्टमी को कन्याओं को जिमाया जाता था, लेकिन अब कन्याओं के आभाव के कारन अब लोग सस्तामी और सातामी को भी कन्याओं को जिमाने लग गए है। क्योकि अब नौ कन्याये बड़ी मुस्किल से मिल रही है, और यहाँ तक की एक ही बेटी कही घरो में कही दिनों तक जिम रही है । अब नौ के संक्या पर जोर नही है, सात भी मिल जाय पाँच ही मिल जाय उतने से ही काम चलाया जा रहा है। आने वाले दिनों में दो या एक की भी नौबत आ जाएगी।

नवरात्री के मौके पर खासकर देवी के रुपौं की आराधना की जाती है , पर उसके बाद साल भर हम क्या अपनी स्त्री जाती की सुध लेते है। हमें जीवित देवियों की भी सुध ले लेनी चाहिए, वरना हम सिर्फ़ पाठ करते रहेंगे और बेटियों के जिंदगी जिदोजहद करती रहेगी।

Thursday, September 10, 2009

दहेज़ पर्था एक सामाजिक बुराई

आज हमारे समाज में परिणय सूत्र में बंधने वाले दो पवित्र रिस्त्रो का व्यवसायीकरण होता जा रहा है । इस व्यसायिकरण का  कारन है हमारे समाज में भंयंकर रूप लेने वाली दहेज़ पर्था का । पहले तो जब लड़की का विवाह होता था तो उसके माँ-बाप उसके परिवार एवं घर को व्यस्थित करने के लिए प्रेम वश उपहार के तौर पर अनाज एवं बर्तन और लड़की के सौन्दर्य के लिए जेवरात इत्थियादी देते थे। लेकिन अब समय और परिस्थिति बदलने के अनुसार इन उपहारों ने एक पर्था का रूप धारण कर लिया है, अब यह प्रेम वश नही मजबूरन दी जाती है इसके लिए लड़के वाले लड़की वालों पर दबाव डालते है।

आज किस तरह और किन परिस्थियों में लड़की के परिवार वाले  अपनी बेटी के खुशी के लिए उपहार के तौर पर दहेज़ के लिए धन जुटाते है । अगर दहेज़ में दिया गया धन  लडके की परिवार वालों के मन माफिक नही होता है तो लड़की तो ताना मरते है तथा उसको अनेक यातनाएं देते है और पुनः  लड़की को मायके से सामान या धन लेन के लिये दबाव डाला जाता है। अगर लड़की अपने ससुराल  के मन माफिक मांगे पुरी नही करती है तो, लड़की को इतनी यातनाएं दी जाती है कि  या तो लड़की खुदकुशी कर लेती है या फ़िर किसी न किसी तरह उसको दहेज़ की बलि चढाया जाता है ।

इस गंभीर समस्या से निपटने की लिए सरकार ने दहेज़ निषेध कानून के अर्न्तगत दहेज की दोषियों के लिए कड़ी सजा का भी प्रावधान  रखा है लेकिन समस्या जस की तस बनी है। दहेज़ के खिलाप कानून बनाने के बावजूद समाज में बढता लालच एवं उपभोक्तावाद के कारन दहेज़ ने जोर पकड़ा है । समाज में अच्छे आचरण के बजाय सान-सौकत वा आकर्षण की  वस्तुओं के आधार पर प्रीतिस्था    प्राप्त की पर्वृति  बढ़ी है इस कारन लोग विवाह के मौकों पर हैसियत के अधिक खर्च करते है। इस अवसर जहाँ धनी वर्ग धन का पर्दर्शन करते है वही गरीब वर्ग समाज में अपनी लाज बचने हेतु कर्जे में डूब जाता है । समाज में बढ़ रही लालच झूटी सान सौकत गिरे हुए मूल्यों पर प्रहार  करना समाज सुधार के लिए बहुत जरुरी है ।

इस समस्या को हल करने के लिए सरकार तथा बहुत सारी गैर सरकारी संगठन पुरी जोर-शोर से लगे है लेकिन अभी तक कोई कामयाबी नज़र आती दिख नही रही है । आज समस्या इतनी भयंकर है की लोग इस दहेज़ की समस्या से बचने के लिए गर्भ में पल रहे भ्रूण लिंग की जाँच करवा रहे है तथा और भ्रूण कन्या होती है तो ज्यादातर कन्या भूर्ण की हत्या करवा देते है ।
सरकारी आंकडो के अनुसार भारत में पर्तिवर्ष ९,५०० ० महिलाएं दहेज़ की बलि चढ़ जाती है । उत्तर प्रदेश और बिहार में लगातार दहेज़ की भेंट चड़ने  वाली महिलाओं के आंकडो में बढोतरी होती जा रही है तथा बंगलोर भारत ही हाय टेक सिटी होने के बावजूद रोजाना ४ महिलाएं दहेज़ एवं हिंसा की भेंट चढ़ जाती है ।

आज आधुनिक पढ़ा लिखा माँ-बाप अपने बेटी के जन्म से ही उसके दहेज़ के लिए पैसे की बचत कर रहा है तो हम उन असिक्षित माँ-बाप के क्या अपेक्षा करे जिनके लिए दहेज़ एक परम्परा है । एक पढ़े-लिखे माँ-बाप अपनी बेटी किए अच्छी परवरिश, उची  शिक्षा तथा उसके करियर की चिंता छोड़ कर उसकी दहेज़ की चिंता सताने लगती है ।
जरुरत है हमें की लड़कियों के दहेज़ की चिंता छोड़ उनकी शिक्षा  एवं उनके करियर पर जोर दिया जाय , उनको इतना मज़बूत बनाए की वे दूसरो पर आश्रित होने के वजाय ख़ुद अपन पैरों पर खरी हो सकें।

बेटी बचाओ, समाज बचाओ

आज भारत में भ्रूण हत्या एक गंभीर समस्या का रूप लेती  रही है। यह हमें पुरुषों के तुलना में लड़कियों की संख्यां में कमी के रूप में साफतौर देखने को मिलती है .  २००१ की जन्गारना के अनुसार १००० पुरुषों पर ९३३ महिलांऐ थी। ६ वर्ष के कम उम्र की लड़कियों की संख्या  ९२७ ही थी।

एक तरफ़ तो भारत में महिलाओं कों महिला सक्ती का दर्जा दिया मान कर पूज लिया जाता है और दूसरी तरफ़ उनको गर्भ में ही मर दिया जाता है। लड़कियों को समाज में बोझ के रूप में देखा जाता है, जबकि लड़कियां आज समाज के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कन्धा में कन्धा मिलकर आगे बढ़ रही है। लड़कियों डॉक्टर, इन्जीनिर , वैज्ञानिक , राजनीतिज्ञ  और समाजसेवी बनकर अपने समाज वा कुल का नाम रोशन करी रही है। लड़कियां घर के काम-काज में भी महत्वपूर्ण अदा कर  जीवन को सुगम बनती है। ऐसे में लड़कियों अबला या अभिसप्त कैसे हो सकती है ।

समज में लड़कियों की संख्या में कमी की मूल वजह सामाजिक सरचना है । लड़को को वंश वृद्धि व वरिश के रूप में देखा जाता है और लड़कियों को पराया धन मान जात्ता है । महिलाओं को लड़का न होने पर उनको ताना मर लिया जाता है । भारत में एक और बुरी सामाजिक पर्था है दहेज़ पर्था। लड़कियों के जन्म लेते ही माता-पिता को दहेज़ की चिंता सताने लगती है । लड़कियों को जवानी की दहलीज पर आते ही उनके हाथ पीले करने की लिये योग्य वर की तलाश शुरू हो जाती है .हमारी सामाजिक संरचना ही ऐसी है जिसमें लड़कियों को कमजोर , बुद्धीहीन , घर के चारदीवारी के अन्दर रहने वाली समझा जाता है और उनका संरक्षक पुरुषों को समझा जाता है .उनको अपने पैर जमीन पर रखते ही एहसास कराया जाने लगता है की लड़कियों की कुछ खास  मर्यादाएँ है । उनके बैठने -चलने , हंसने  - बोलने , खेलने पर रोक लगाने की कोशिश की जाती है । इस तरह लड़कियों पर बचपन से ही शारीरिक व मानसिक नियंतरण  रखा जाने लगता है .उनके भूर्ण एक भय (पुरूष का भय )पैदा किया जाता है और उन्हे अबला का दर्जा दे दिया जाता है

तथाकथित सभ्य समाज में लड़कियों की संख्या में और भी ज्यादा अन्तर है जैसे की पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में प्रति १००० लड़कों पर कर्मसः ८७६, ८६१ और ८२१ लड़कियां है ऐसे में जीवन बचाने वाली प्रोधिगिकी का प्रयोग  करके जीवन ही खतम किया जा रहा है। आधुनिक मशीनों द्वारा लिंग का परिक्षण कराकर गर्भपात करा दिया जाता है इससे समाज में उनकी संख्या कम होती जा रही है। आने वाले समय में यह भयानक स्थिति पैदा करी सकती है और एक समय ऐसा आयेगा की बहुत लड़को को अविवाहित ही रहना पड़ेगा। इससे मानसिक विकृतियाँ बढेगी तथा समाज में और ज्यादा महिलाओ पर अत्याचार (बलात्कार जैसी घटनाये) बढेगी। इस सामाजिक असुरक्षा के कारन लोग लड़कियों के पैदा होने से ज्यादा डरेंगे। इससे समाज में विक्रितीय  और बढेगी, लड़कियां अपने घरों में भी अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगेगी।

अतः हम सभी आम जनता एवं चिंतनशील वर्ग से अपील करते है की हमें देश में घटती लड़कियों के संक्या    पर  ध्यान देना चाहिए और अपने आस-पास के लोगो को लिंगानुपात के कम होने वाले खतरों के बारे में सजग करे और बताएं की लड़कियों बोझ नही है, बल्कि समाज विकास में महिलायों  की  महत्वपूर्ण भूमिका है। आए हम सब मिलकर संकल्प ले की हम अपने आस-पास होने वाले भूर्ण हत्या को बंद करने में अहम् भूमिका निभाए .