बेटे के लोरियां और बेटी की लिए दुवाएं
लल्ला लल्ला लोरी, दूध की कटोरी...., बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले..., इन दोनों गीतों के शब्दों पर जरा गौर करें। जाहिर है, पहला गीत बेटों के लिए और दूसरा गीत बेटियों के लिए रचा गया है। पहला गीत मुन्ना को दूध पिलाकर हृष्ट-पुष्ट बनाने के संकेत देता है तो दूसरा गीत बिटिया के लिए ससुराल में सुखी संसार की आशा करता है। पहला गीत गाते हुए माता-पिता के दिल में खुशियां हिलोरे लेने लगती है तो दूसरा गीत गाते हुए उनकी आंखों से आंसू झरने लगते हैं। इन दो गीतों से पुरातन भारतीय समाज की मानसिकता का पता लगता है। यह मानसिकता भले ही कम अंशों में, लेकिन अभी भी कायम है।
शायद यही वजह है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या घटती जा रही है। मध्यप्रदेश का भिंड जिला तो इस मामले में पूरे देश में पहले नंबर पर है। इस जिले में लिंगानुपात १०००/838 है। यानी एक हजार लड़कों की तुलना में 162 लड़कियों की कमी। इसके बाद इसी के पड़ोसी जिले मुरैना का नंबर आता है। यहां लिंगानुपात 839 है। क्षेत्र में बेटियों की संख्या कम होने के कारण सामाजिक विषमता और पुरातन रूढिय़ां साफ दिखाई दे रही हैं। समाजशास्त्रियों के अनुसार जिस घर में स्त्री-पुरुष अनुपात समान रहता है, वहां शांति, समरसता और सद्भाव ज्यादा प्रभावी दिखाई देता है। कारण यह कि महिला वर्ग के प्रति अदब और लिहाज रहता है।
भिंड और मुरैना जिले में कतिपय कुप्रथाओं के चलते बेटियों को जन्म के तत्काल बाद मार डाला जाता है। किसी के मुंह में कपड़ा ठूंसकर उसकी जान ली जाती है तो किसी को तंबाकू सुंघाकर मौत की नींद सुला दिया जाता है। गांवों में अभी लिंग परीक्षण तकनीक नहीं पहुंची है, इसलिए बेटा है या बेटी, इसका पता करने के लिए उसके जन्म तक इंतजार किया जाता है। लेकिन शहरों में गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण कर कन्या भ्रूण को गर्भपात के जरिए नष्ट करने के मामले भी खूब बढ़ रहे हैं। सख्त कानून और चौकसी के सरकारी दावे कागजों पर ही दिखाई देते हैं। देश के तमाम नर्सिंग होम और मैटरनिटी होम इस तकनीक का दुरुपयोग कर खुलेआम पैसे कमा रहे हैं।
देखा गया है कि बेटों को सक्षम बनाने के लिए माता-पिता पूरी ताकत लगा देते हैं, जबकि बेटी को यह कहकर आजादी नहीं दी जाती कि उसे तो पराए घर जाना है। बेटी की परवरिश के पीछे यही मानसिकता काम करती है। इस सोच और मानसिकता को बदलने के उद्देश्य से मध्यप्रदेश में बेटी बचाओ अभियान शुरू किया गया है। इसके पहले यहां लाड़ली लक्ष्मी योजना लागू की गई थी, जिसके तहत एकल बेटी वाले अभिभावकों को विशेष आर्थिक सहायता दी जा रही है। लेकिन इस तरह के अभियान केवल सरकार के भरोसे नहीं चल सकते। इनमें सामाजिक भागीदारी बेहद जरूरी है। बेटियों को बेटों की तरह ही सक्षम बनाना हर माता-पिता का दायित्व होना चाहिए। बेटियों की परवरिश पर बेटों से ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। बेटियां किसी भी परिवार के लिए बोझ नहीं बनतीं, बल्कि उस परिवार के लिए लक्ष्मी की तरह सुख, शांति और समृद्धि लेकर आती हैं। साहित्य, टीवी, फिल्म और मीडिया में भी बेटियों के प्रति नजरिया सकारात्मक होना चाहिए। मनोरंजन के नाम पर महिलाओं की छवि का अनुचित दोहन बंद हो और उनके प्रेरणास्पद कार्यों का प्रचार-प्रसार हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य में स्त्री-पुरुष का घटता अनुपात कई विकराल समस्याएं पैदा कर सकता है। ऐसी समस्याएं, जिनके हल मुश्किल ही नहीं, असंभव होंगे और तब पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाएगा।
बेटियों को बचाने के लिए पौधों का सहारा
मध्य प्रदेश में बेटियों के जन्म को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार तमाम योजनाएं चला रही है, तो दूसरी ओर प्रशासनिक मशीनरी भी अपने स्तर पर कोशिशें कर रही है। इन कोशिशों में से एक है 'बेटी के जन्म पर पांच पौधों का रोपण'। देश के अन्य हिस्सों की तरह मध्य प्रदेश में शिशु लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2001 में राज्य में जहां 1000 लड़कों पर 932 लड़कियां थी वह वर्ष 2011 में घटकर 1000 लड़कों पर 912 लड़कियां ही रह गई है। इस तरह बीते 10 वर्षों में राज्य में शिशु लिंगानुपात में 20 अंक की गिरावट आई है। राज्य में सबसे बुरा हाल डकैतों के कारण पूरी दुनिया में पहचाने जाने वाले ग्वालियर चम्बल संभाग में है। मुरैना में 1000 लड़कों पर 825 तो भिण्ड में 835 लड़कियां हैं। राज्य सरकार बालिका जन्म को प्रोत्साहित करने के लिए लाडली लक्ष्मी, मुख्यमंत्री कन्यादान जैसी अनेक योजनाएं चला रही है। वहीं चम्बल इलाके में बालिका जन्म को यादगार बनाने के लिए नई मुहिम छेड़ी गई है। इस मुहिम का मकसद बालिका जन्म के साथ पर्यावरण को दुरुस्त करना भी है। यहां बालिका जन्म पर पांच पौधे रोपे जा रहे है। महिला बाल विकास के संयुक्त संचालक सुरेश तोमर ने चर्चा करते हुए कहा कि एक बेटी पांच पौधे लगाने के अभियान के पीछे उद्देश्य भावनात्मक तौर पर लोगों का बेटी और पौधों के प्रति जुड़ाव पैदा करना है। इस अभियान में बेटी की मां, दादी, दादा, बुआ व पिता से पौधे लगवाए जाते हैं। भिण्ड जिले के सिंघवारी गांव में मीना बाई के घर बेटी का जन्म होने पर पांच पौधे रोपे गए। रोपे गए पांचों पौधे अलग-अलग किस्म के हैं। महिला बाल विकास अधिकारी आर.के. तिवारी बताते हैं कि एक बेटी पांच पेड़ योजना मे पौधे सम्बंधित परिवार के घर के करीब ही रोपे जाते हैं ताकि वे आसानी से उनकी देखरेख कर सकें। यहां बता दें कि चम्बल इलाके में वर्षों से बेटियों को जन्म के साथ ही मार देने की परम्परा रही है। जन्म के साथ ही बेटी को मारने की कोशिशें शुरू हो जाती थी। पहले तम्बाकू खिलाकर मारने की कोशिश होती थी, जब सफलता नहीं मिलती तो गला दबा दिया जाता था। जहां बेटियों को अभिशाप मानने की परम्परा रही है, वहां बेटी के जन्म पर पांच पेड़ लगाने की मुहिम अंधेरे में रोशनी दिखाने का काम कर रही है।
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नई दिल्ली (एसएनबी)। पिछले एक दशक में भारत की आबादी में पुरुष- महिलाओं के बीच अनुपात में मामूली सुधार हुआ है, लेकिन छह साल तक के शिशुओं के लिंग अनुपात की बढ़ती खाई के रुझान के चलते भविष्य में महिलाओं की संख्या में फिर भारी गिरावट आ सकती है। देश में पिछले दशक में छह साल तक की शिशु आबादी में तीन प्रतिशत की गिरावट देखी गई। शुक्रवार को जारी 2011 जनगणना के अस्थाई आंकड़ों के अनुसार देश की आबादी 17.64 प्रतिशत की गति से बढ़ते हुए 121 करोड़ दो लाख हो गई है। लेकिन इसका सबसे भयावह तथ्य यह है कि देश में छह साल से कम आयु की आबादी का लिंग अनुपात 1961 के बाद से सबसे कम है। देश की पूरी आबादी के पैमाने पर लिंग अनुपात 2001 के औसतन एक हजार पुरुष पर 933 महिलाओं के मुकाबले सात अंक की बढ़ोतरी के साथ 940 हो गया है। लेकिन डराने वाला पहलु यह है कि भविष्य में इसमें फिर बड़ी गिरावट आ सकती है, क्योंकि छह साल से कम आयु की आबादी में लिंग अनुपात की खाई बढ़ रही है। अस्थाई रिपोर्ट के मुताबिक जनगणना-2011 में छह साल तक के शिशुओं में लिंग अनुपात 1961 के बाद से सबसे कम हो गया है। पिछले दस सालों में 13 अंकोें की गिरावट के साथ 927 से घट कर 914 हो गया है। ग्रामीण इलाकों में यह और भी तेज गति यानी 15 अंकों की गिरावट के साथ 934 से कम होकर 919 पर आ गया है। शर्मसार करने वाली बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों के मामले में देश की राजधानी दिल्ली में इस आयु वर्ग में लिंग अनुपात सबसे कम यानी हजार पुरुष पर 809 महिलाओं का है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में सबसे अधिक 975 है। शहरी इलाकों के मामले में इस आयु वर्ग में हरियाणा में सबसे कम 829 और नगालैंड में सबसे अधिक 979 का अनुपात है। लिंग अनुपात में केरल में सबसे अधिक औसतन 1000 पुरुषों पर 1084 महिलाएं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में चंडीगढ़ में यह अनुपात सबसे कम 1000 पुरुषों पर 691 महिलाओं का है और शहर के मामले में दमन और दीव में 1000 पुरुषों पर मात्र 550 महिलाओं का है। बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, जम्मू- कश्मीर और हिमाचल प्रदेश सहित आठ राज्यों के ग्रामीण इलाकों के लिंग अनुपात में कमी आई है। देश में शहरी क्षेत्रों में रहने वाले गरीबों की संख्या में बीते एक दशक में करीब चार करोड़ का इजाफा हुआ है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में शहरी गरीबों की संख्या 5.23 करोड़ थी जो वर्ष 2011 के अनुमानित आंकड़ों के तहत बढ़कर 9.3 करोड़ हो गयी। जनगणना के अनुसार 121 करोड़ से अधिक की आबादी में भारत में 77 करोड़ 85 लाख साक्षर हैं। पिछले एक दशक में देश के साक्षरों में 21 करोड़ 78 लाख की वृद्धि हुई है। इसमें महत्वपूर्ण पहलू यह है कि शिक्षा के मामले में देश में पुरुषों और महिलाओं के बीच के अनुपात की खाई कम हुई है। शिक्षा में पुरुष महिलाओं के बीच अनुपात घट कर 16.68 हो गया है। लेकिन अभी भी पुरुषों की 82.14 साक्षरता दर के मुकाबले महिलाओं में यह दर 65.46 ही है। ग्रामीण इलाकों में 92.92 प्रतिशत के साथ केरल में सबसे अधिक साक्षर हैं, तो शहरी इलाके के हिसाब से मिज़ोरम 98.1 प्रतिशत के साथ अव्वल है। ग्रामीण क्षेत्रों के मामले में राजस्थान में सबसे कम 46.25 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। शहरी क्षेत्रों के हिसाब से जम्मू कश्मीर में सबसे कम 70.19 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। देश की 121 करोड़ आबादी में से 83 करोड़ 31 लाख ग्रामीण हैं और 37 करोड़ 71 लाख शहरी। यानी 68.84 प्रतिशत ग्रामीण आबादी है और 31.16 शहरी। |
अमीरों में बढ़ रहा है भ्रूण हत्या का चलन
नई दिल्ली, बुधवार, 25 मई 2011( 19:57 IST )
भारत में पिछले तीन दशकों में 42 लाख से 1.21 करोड़ कन्या भ्रूण की हत्या करवाई गई। एक नये अध्ययन में यह चौंकाने वाली बात सामने आई है कि संतान के रूप में एक कन्या होने के बाद यदि गर्भ में दूसरी लड़की आ जाती है तो ऐसे भ्रूण को खत्म करवाने की प्रवृत्ति धनी एवं शिक्षित तबकों में तेजी से बढ़ रही है।
प्रतिष्ठित ‘लैंसेट’ पत्रिका के आगामी अंक में छपने वाले इस अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार 1980 से 2010 के बीच इस तरह के गर्भपातों की संख्या 42 लाख से एक करोड़ 21 लाख के बीच रही है। अभिभावक संतान के रूप में दूसरी लड़की का गर्भपात इसलिए करवाते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि परिवार में कम से कम एक संतान लड़का हो।
अध्ययन में दावा किया गया है कि पिछले कुछ दशकों में चुनिंदा गर्भपात का चलन बढ़ा है। साथ ही लड़के-लड़कियों के अनुपात में कमी की प्रवृत्ति जो अभी तक उत्तरी राज्यों में ही ज्यादा पाई जाती थी अब उसका प्रकोप पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में भी फैलने लगा है।
टोरंटो विश्वविद्यालय के प्रभात झा इस अध्ययन पत्र के मुख्य लेखक हैं। उन्होंने बताया कि भारत की अधिकतर आबादी ऐसे राज्यों में रहती है जहां इस तरह के मामले आम हैं।
अध्ययन में जनगणना आंकड़ों और राष्ट्रीय सर्वेक्षण के जन्म आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। इस विश्लेषण का मकसद ऐसे परिवारों में दूसरे बच्चे के जन्म में बालक-बालिका के अनुपात का अंदाजा लगाया जा सका, जहां पहली संतान के रूप में बच्ची पैदा हो चुकी थी।
अध्ययन में पाया गया कि 1990 में प्रति 1000 लड़कों पर 906 लड़किया थीं जो 2005 में घटकर 836 रह गईं। झा ने कहा कि अनुपात में यह गिरावट उन परिवारों में अधिक देखी गई जहां जन्म देने वाली मां ने दसवीं या उससे उच्च कक्षा की शिक्षा हासिल कर रखी थी और जो संपन्न गृहस्थी की थी। लेकिन ऐसे ही परिवारों में यदि पहला बच्चा लड़का है तो दूसरी संतान के मामले में लड़का-लड़की अनुपात में कोई कमी नहीं आई।
उन्होंने कहा कि इससे यह सुझाव मिलता है कि कन्या भूण का चुनिंदा गर्भपात शिक्षित एवं संपन्न परिवारों में ज्यादा मिलता है। ऐसी प्रवृत्ति आम तौर पर पहली संतान के लड़की होने के मामलों में देखी जाती है। 1980 के दशक में कन्या भ्रूण का चुनिंदा गर्भपात 0.20 लाख था, जो 1990 के दशक में बढ़कर 12 लाख से 40 लाख तथा 2000 के दशक में 31 लाख से 60 लाख तक हो गया।
अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि पहली संतान कन्या होने की स्थिति में लिंग अनुपात में कमी ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी इलाकों में ज्यादा देखने को मिली। (भाषा)
भ्रूण हत्या : एक अभिशाप
- प्रकाशित : 07/2/2008
संसार में मनुष्य को ही नहीं, प्रत्येक प्राणी मात्र को जीने का अधिकार है। किसी भी प्राणी के प्राणों को बलात् लूट लेना हिंसा है। भगवान महावीर ने हिंसा के दो रूप बताएँ हैं-
आवश्यक और अनावश्यक। एक गृहस्थ जीवन-यापन के लिए अनावश्यक हिंसा से बच नहीं सकता, किन्तु अनावश्यक हिंसा को रोक सकता है। जिस हिंसा के बिना जीवन चल सकता है, वैसी हिंसा से मनुष्य की क्रूरता प्रकट होती है। संसार में पर्यावरणीय न्याय चलता है। बड़े जीव छोटे जीवों का भक्षण करते हैं। शक्तिशाली पशु दुर्बल पशुओं का वध कर अपना पेट भरते हैं। किन्तु जब मनुष्य अकारण किसी जीव की हत्या करता है, प्राण वियोजन करता है तो वह मानवीय वृत्तियों से हटकर दानवीय वृत्तियों को पोषण देता है। आज मानव के मन में करुणा का स्रोत सूखता जा रहा है। प्रेम, सौहार्द व सदाचार की भावना प्रतिदिन घटती जा रही है।
वर्तमान युग में अपराधों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इनमें जघन्य अपराध है- भ्रूणहत्या। इसका मुख्य कारण है- इच्छित संतान, जो आधुनिक शिक्षित व सभ्य समाज की पहचान बन गई है। इस मंजिल तक पहुँचने के लिए वैज्ञानिक आविष्कार अनन्य सहयोगी बने हैं। परिणाम स्वरूप शिशु का लिंग-परीक्षण कराना व अनचाही संतान से छुटकारा पाना आज के युग में सहज हो गया है। जन-संख्या नियंत्रण को प्राथमिकता देने वाली सरकार ने जबसे भ्रूण-हत्या को कानूनी वैधता प्रदान की है, तब से विश्व में भूण-हत्याओं का क्रूर व्यापार निर्बाध गति से बढ़ रहा है। भगवान महावीर, बुद्ध व महात्मा गांधी जैसे नायकों के अहिंसा प्रधान देश में हिंसा का नया रूप भारतीय संस्कृति का उपहास है।
भारत वर्ष में लगभग दो दशक पूर्व भ्रूण-परीक्षण पद्धति की शुरुआत हुई, जिसका नाम है-एमिनो सिंथेसिस। इसका उद्देश्य है गर्भस्थ शिशु के क्रोमोसोमों के संबंध में जानकारी हासिल करना। यदि इनमें किसी भी तरह की विकृति हो, जिससे शिशु की मानसिक व शारीरिक स्थिति बिगड़ सकती हो, तो उसका उपचार करना। किन्तु पिछले दस वर्षों से यह उद्देश्य बिल्कुल बदल गया है। आज अधिकांश माता-पिता गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की चिंता छोड़कर भ्रूण-परीक्षण केन्द्राW में यह पता लगाते हैं कि गर्भस्थ शिशु लड़का है अथवा लड़की। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूण के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती है, किन्तु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूण से छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनायी जाती है। उस भ्रूण की चीत्कार अनसुनी कर दी जाती है।
माँ चाहे मुझे प्यार न देना,
चाहे दुलार न देना।
कर सको तो इतना करना,
जन्म से पहले मार न देना।।
कौन सुनता है, इसकी दर्दभरी पुकार को। माता ममतामयी कहलाती है। करुणा की मूर्ति मानी जाती है। उसी माँ का नाम जब हत्या के साथ जुड़ जाता है, तो आश्चर्य होता है। हत्या भी किसकी? अपने ही खून की!
देवी स्वरूप, निस्वार्थ भाव से अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करने वाली मां अजन्मे शिशु को मारने की स्वीकृति कैसे दे सकती है? क्या उस बच्ची को जीने का अधिकार नहीं है? बेचारी उस बच्ची ने कौन-सा अपराध किया है? यह कृत्य मानवीय दृष्टि से भी उचित नहीं है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है। संसार के किसी भी धर्म में भ्रूण-हत्या को श्रेष्ठ नहीं बताया गया है। वैदिक धर्म में ब्रह्म-हत्या से भी अधिक पाप भ्रूण-हत्या को बताया गया है।
``यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातने, प्रायश्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते''
ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। जैन-दर्शन में भी पंचेन्द्रिय की हत्या करना नरक की गति पाने का कारण माना गया है। आश्चर्य है कि धार्मिक कहलाने वाला समाज, चींटी की हत्या से कांपने वाला समाज आँख मूंद कर कैसे भ्रूण-हत्या करवाता है! यह मानव-जाति को कलंकित करने वाला अपराध है। अमेरिका में सन् 1994 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट क्रीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12 सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120 की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुड़ने लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
इस निर्मम कृत्य से ऐसा लगता है, मानों कलियुग की क्रूर हवा से माँ के दिल में करुणा का दरिया सूख गया है। तभी दिन-प्रतिदिन कन्या भ्रूण-हत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। यह भ्रूण-हत्या का सिलसिला इसी रूप में चलता रहा तो भारतीय जन-गणना में कन्याओं की घटती हुई संख्या से भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। इस बात से देश के प्रबुद्ध समाज शास्त्री चिंतित हैं। उनका मानना है कि आने वाले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आ जायेगी, जिससे विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियाँ नहीं रहेंगी। अपेक्षा है कि सामाजिक सोच बदली जाए, मानदंड बदले जाए। लड़के और लड़कियों के बीच भेद-रेखा को समाप्त किया जाये। एक कहावत है- लड़का करेगा कुल को रौशन, लड़की है पराया धन। इस प्रकार की भ्रांत धारणाओं के विकसित होने के परिणाम स्वरूप ही कन्या भ्रूण हत्याएं बढ़ी हैं। आज की परिस्थिति में लड़का हो या लड़की, इस बात का महत्व नहीं रहा है। बच्चा चाहे वह लड़का हो या लड़की, उसे शिक्षा व संस्कारों से संस्कारित किया जाना चाहिए। लड़कियों के जन्म से घबराने की अपेक्षा उनके जीवन के निर्माण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, यह समाज के लिए अधिक श्रेयस्कर है। संस्कारी और सुयोग्य कन्याओं के सुरभित गुणों से परिवार भी सुरभित बनेगा, जो समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। कुछ प्रान्तों में भारत सरकार द्वारा कन्याभ्रूण हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है। जब तक मनुष्य की मनोवृति नहीं बदलेगी, भोगवृति सीमित नहीं होगी, तब तक सही समाधान नहीं मिल सकेगा। नैतिक मूल्यों की स्थापना व अहिंसक चेतना को जगाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से मानव को आचार संहिता दी है। उसमें निरपराध प्राणी की हत्या न करने पर बल दिया गया है। अगर हम एक नियम को जीवन में उतार लेते हैं तो हमारा जीवन सुख-शांति व आनंदमय बन सकता है। अपेक्षा है, जीवन को संकल्पित बनाने की।
आवश्यक और अनावश्यक। एक गृहस्थ जीवन-यापन के लिए अनावश्यक हिंसा से बच नहीं सकता, किन्तु अनावश्यक हिंसा को रोक सकता है। जिस हिंसा के बिना जीवन चल सकता है, वैसी हिंसा से मनुष्य की क्रूरता प्रकट होती है। संसार में पर्यावरणीय न्याय चलता है। बड़े जीव छोटे जीवों का भक्षण करते हैं। शक्तिशाली पशु दुर्बल पशुओं का वध कर अपना पेट भरते हैं। किन्तु जब मनुष्य अकारण किसी जीव की हत्या करता है, प्राण वियोजन करता है तो वह मानवीय वृत्तियों से हटकर दानवीय वृत्तियों को पोषण देता है। आज मानव के मन में करुणा का स्रोत सूखता जा रहा है। प्रेम, सौहार्द व सदाचार की भावना प्रतिदिन घटती जा रही है।
वर्तमान युग में अपराधों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इनमें जघन्य अपराध है- भ्रूणहत्या। इसका मुख्य कारण है- इच्छित संतान, जो आधुनिक शिक्षित व सभ्य समाज की पहचान बन गई है। इस मंजिल तक पहुँचने के लिए वैज्ञानिक आविष्कार अनन्य सहयोगी बने हैं। परिणाम स्वरूप शिशु का लिंग-परीक्षण कराना व अनचाही संतान से छुटकारा पाना आज के युग में सहज हो गया है। जन-संख्या नियंत्रण को प्राथमिकता देने वाली सरकार ने जबसे भ्रूण-हत्या को कानूनी वैधता प्रदान की है, तब से विश्व में भूण-हत्याओं का क्रूर व्यापार निर्बाध गति से बढ़ रहा है। भगवान महावीर, बुद्ध व महात्मा गांधी जैसे नायकों के अहिंसा प्रधान देश में हिंसा का नया रूप भारतीय संस्कृति का उपहास है।
भारत वर्ष में लगभग दो दशक पूर्व भ्रूण-परीक्षण पद्धति की शुरुआत हुई, जिसका नाम है-एमिनो सिंथेसिस। इसका उद्देश्य है गर्भस्थ शिशु के क्रोमोसोमों के संबंध में जानकारी हासिल करना। यदि इनमें किसी भी तरह की विकृति हो, जिससे शिशु की मानसिक व शारीरिक स्थिति बिगड़ सकती हो, तो उसका उपचार करना। किन्तु पिछले दस वर्षों से यह उद्देश्य बिल्कुल बदल गया है। आज अधिकांश माता-पिता गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की चिंता छोड़कर भ्रूण-परीक्षण केन्द्राW में यह पता लगाते हैं कि गर्भस्थ शिशु लड़का है अथवा लड़की। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूण के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती है, किन्तु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूण से छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनायी जाती है। उस भ्रूण की चीत्कार अनसुनी कर दी जाती है।
माँ चाहे मुझे प्यार न देना,
चाहे दुलार न देना।
कर सको तो इतना करना,
जन्म से पहले मार न देना।।
कौन सुनता है, इसकी दर्दभरी पुकार को। माता ममतामयी कहलाती है। करुणा की मूर्ति मानी जाती है। उसी माँ का नाम जब हत्या के साथ जुड़ जाता है, तो आश्चर्य होता है। हत्या भी किसकी? अपने ही खून की!
देवी स्वरूप, निस्वार्थ भाव से अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करने वाली मां अजन्मे शिशु को मारने की स्वीकृति कैसे दे सकती है? क्या उस बच्ची को जीने का अधिकार नहीं है? बेचारी उस बच्ची ने कौन-सा अपराध किया है? यह कृत्य मानवीय दृष्टि से भी उचित नहीं है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है। संसार के किसी भी धर्म में भ्रूण-हत्या को श्रेष्ठ नहीं बताया गया है। वैदिक धर्म में ब्रह्म-हत्या से भी अधिक पाप भ्रूण-हत्या को बताया गया है।
``यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातने, प्रायश्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते''
ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। जैन-दर्शन में भी पंचेन्द्रिय की हत्या करना नरक की गति पाने का कारण माना गया है। आश्चर्य है कि धार्मिक कहलाने वाला समाज, चींटी की हत्या से कांपने वाला समाज आँख मूंद कर कैसे भ्रूण-हत्या करवाता है! यह मानव-जाति को कलंकित करने वाला अपराध है। अमेरिका में सन् 1994 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट क्रीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12 सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120 की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुड़ने लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
इस निर्मम कृत्य से ऐसा लगता है, मानों कलियुग की क्रूर हवा से माँ के दिल में करुणा का दरिया सूख गया है। तभी दिन-प्रतिदिन कन्या भ्रूण-हत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। यह भ्रूण-हत्या का सिलसिला इसी रूप में चलता रहा तो भारतीय जन-गणना में कन्याओं की घटती हुई संख्या से भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। इस बात से देश के प्रबुद्ध समाज शास्त्री चिंतित हैं। उनका मानना है कि आने वाले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आ जायेगी, जिससे विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियाँ नहीं रहेंगी। अपेक्षा है कि सामाजिक सोच बदली जाए, मानदंड बदले जाए। लड़के और लड़कियों के बीच भेद-रेखा को समाप्त किया जाये। एक कहावत है- लड़का करेगा कुल को रौशन, लड़की है पराया धन। इस प्रकार की भ्रांत धारणाओं के विकसित होने के परिणाम स्वरूप ही कन्या भ्रूण हत्याएं बढ़ी हैं। आज की परिस्थिति में लड़का हो या लड़की, इस बात का महत्व नहीं रहा है। बच्चा चाहे वह लड़का हो या लड़की, उसे शिक्षा व संस्कारों से संस्कारित किया जाना चाहिए। लड़कियों के जन्म से घबराने की अपेक्षा उनके जीवन के निर्माण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, यह समाज के लिए अधिक श्रेयस्कर है। संस्कारी और सुयोग्य कन्याओं के सुरभित गुणों से परिवार भी सुरभित बनेगा, जो समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। कुछ प्रान्तों में भारत सरकार द्वारा कन्याभ्रूण हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है। जब तक मनुष्य की मनोवृति नहीं बदलेगी, भोगवृति सीमित नहीं होगी, तब तक सही समाधान नहीं मिल सकेगा। नैतिक मूल्यों की स्थापना व अहिंसक चेतना को जगाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से मानव को आचार संहिता दी है। उसमें निरपराध प्राणी की हत्या न करने पर बल दिया गया है। अगर हम एक नियम को जीवन में उतार लेते हैं तो हमारा जीवन सुख-शांति व आनंदमय बन सकता है। अपेक्षा है, जीवन को संकल्पित बनाने की।
सवा करोड़ बेटियों के कातिल हैं पढ़े-लिखे रईस लोग! |
आईबीएन-7
एक सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों के मुताबिक बड़े शहरों का पढ़ा-लिखा वर्ग धड़ल्ले से कन्या भ्रूण हत्या कर रहा है। शहरों में ऐसे रईसों की संख्या बढ़ती जा रही है जो बेटे की लालसा में कन्या भ्रूण हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकते हैं।
एक रिसर्च के मुताबिक पढ़े-लिखे रईस परिवारों में पहला बच्चा लड़की होने पर दूसरे बच्चे के रूप में लड़कियों को स्वीकार नहीं करने का विचार तेजी से फैला है।
जानी-मानी पत्रिका ‘लैंसेट’ के आंकड़ों के मुताबिक साल 1980-2010 के बीच करीब 1 करोड़ 20 लाख कन्या भ्रूण हत्याएं हुई। और 20 प्रतिशत रईस परिवारों में कन्या भ्रूण हत्याएं बढ़ी। जबकि पिछड़े तबके के 20 प्रतिशत घरों में नवजात लड़कियों की तादाद बढ़ी है। मतलब साफ है कि पिछड़े और गरीब घरों में नवजात लड़कियां ज्यादा सुरक्षित हैं।
अनचाही लड़कियों को बचाने के लिए बनेंगे ‘पालना घर’
शोधकर्ताओं ने गांव और शहरों के 250 घरों में सर्वे करने के बाद ये नतीजा निकाला है। पढ़े-लिखे लोगों ने लड़कियों को लेकर घिनौनी सोच का दायरा हद से ज्यादा बढ़ गया है। आंकड़ों के मुताबिक 1,000 लड़कों पर सिर्फ 836 लड़कियां ही जन्म लेती पाई गई हैं।
'लाखों बच्चियों की भ्रूण हत्या'
BBC HINDI
एक नए अनुसंधान के मुताबिक भारत में पिछले 30 सालों में कम से कम 40 लाख बच्चियों की भ्रूण हत्या की गई है.
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'द लैन्सेट' में छपे इस शोध में दावा किया गया है कि ये अनुमान ज़्यादा से ज़्यादा 1 करोड़ 20 लाख भी हो सकता है.सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के साथ किए गए इस शोध में वर्ष 1991 से 2011 तक के जनगणना आंकड़ों को नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के साथ जोड़कर ये निष्कर्ष निकाले गए हैं.
शोध में ये पाया गया है कि जिन परिवारों में पहली सन्तान लड़की होती है उनमें से ज़्यादातर परिवार पैदा होने से पहले दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवा लेते हैं और लड़की होने पर उसे मरवा देते हैं. लेकिन अगर पहली सन्तान बेटा है तो दूसरी सन्तान के लिंग अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई.
इस पर काम करने वाले प्रोफेसर प्रभात झा कहते हैं, "समय के साथ बेटे की चाहत कम नहीं हुई है लेकिन छोटे परिवारों का चलन तेज़ी से बढ़ा है, इसीलिए पहले बेटी होने पर दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवाकर परिवार ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनका एक बेटा तो ज़रूर हो."
शिक्षित और समृद्ध परिवारों में कन्या भ्रूण हत्या
इस अनुसंधान में भारत में पिछले तीन दशकों में हुए ढाई लाख जन्मों के बारे में जानकारी जुटाई गई.शोध में मांओं की शिक्षा दर और परिवार के आर्थिक स्तर की जानकारी का अध्ययन भी किया गया जिसके मुताबिक शिक्षित और समृद्ध परिवारों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों के अनुपात में ज़्यादा गिरावट देखी गई.
समय के साथ बेटे की चाहत कम नहीं हुई है लेकिन छोटे परिवारों का चलन तेज़ी से बढ़ा है, इसीलिए पहले बेटी होने पर दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवाकर परिवार ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनका एक बेटा तो ज़रूर हो.
प्रोफेसर प्रभात झा, शोधकर्ता
इन आंकड़ों को देखकर वो कहते हैं, "हमारे देश के अलग-अलग राज्यों को देखकर ये साफ हो जाता है कि पिछले दस सालों में शिक्षा की दर, संपत्ति, जाति या समुदाय किसी एक पैमाने पर नहीं, बल्कि सभी तरह के परिवारों में गर्भ में लिंग चुनाव करना आम हो गया है."
भारत सरकार ने 17 साल पहले ही एक कानून पारित किया था जिसके मुताबिक पैदा होने से पहले बच्चे का लिंग मालुम करना गैरकानूनी है.
लेकिन राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरता कोष की पूर्व कार्यकारी निदेशक शैलजा चंद्रा के मुताबिक इस कानून को लागू करना बेहद मुश्किल है.
चन्द्रा कहती हैं, "कानून को लागू करने वाले ज़िला स्वास्थ्य अफसर के लिए लिंग जांच करने वाले डॉक्टर पर नकेल कसना बहुत मुश्किल है क्योंकि डॉक्टरों के पास नवीनतम तकनीक उपल्ब्ध है."
उनके मुताबिक कानून को लागू करने के लिए राज्य स्तर पर मुख्यमंत्रियों को ये बीड़ा उठाना होगा और इसे प्राथमिकता देनी होगी, तभी अफसर हरकत में आएंगे और डॉक्टरों को पकड़ने के तरीके निकालेंगे.